ऐ जानशीं!
वो तुम ही थी?
न जाने कितने वादे किये थे......!
आज उन तमाम वादों ....
की दीवार पर -
फफूंद जवां होती है.........
ये सर्द हरी काई......
न जाने क्यूँ मनहूस सी मालूम होती है....!
न जाने क्यूँ मनहूस सी मालूम होती है....!
शायद तुम्हे इल्म न हो............
अक्सर इस हरी दीवार से चिपका-
ये सिसकता धुआं.....
ये सिसकता धुआं.....
तुम्हारी यादों के अक्स उकेरता है....!
शायद ये पागलपन सा लगे......
लेकिन तुम इसे समझ नहीं सकती.....!
कभी भी नहीं.........!
:'(