Tuesday, August 20, 2013

एक कविता तुम्हारे लिए!

ऐ जानशीं!
वो तुम ही थी?

न जाने कितने वादे किये थे......!

आज उन तमाम वादों ....
की दीवार पर -
फफूंद जवां होती है.........

ये सर्द हरी  काई......
न जाने क्यूँ मनहूस सी मालूम होती है....!

शायद तुम्हे इल्म न हो............

अक्सर इस हरी दीवार से चिपका-
ये सिसकता धुआं.....

तुम्हारी यादों के अक्स उकेरता है....!
शायद ये पागलपन सा लगे......


लेकिन तुम इसे समझ नहीं सकती.....!
कभी भी नहीं.........!
:'(