Thursday, November 13, 2014

बस यूँ ही .................


बस यूँ ही ..........

वो चंद हसरतें
जो दफ़न हो के रह गयीं
आज भी
रह रह के सिसक उठती हैं
और चाँद
जो तुम संग मुस्कुराया करता था
आज वो भी ग़मगीन है...........
'कभी तुम लौट आओ'
ये उम्मीद, अब ज़िंदा नहीं रही...
सर्दियाँ अब गुलाबी फितरत लेकर नहीं आतीं
ना ही बारिश मल्हार राग गाती है.......
तुम संग मौसम भी बदल गए.......
काश तुम ये देख पाती..........
आज ये नाउम्मीदियों का बुलबुला फूट पड़ा
और ये चँद अल्फाज कह दिए.....
बस यूँ ही.......................................
       
                                         _____गंगेश राव 

Wednesday, January 29, 2014

रिक्तता व्याप्त है ...... 



सन्नाटे -
दूर पहाड़ों के पीछे-
अंधेरी रात में -
गर्मी-उमस 
और बेचैनी सहेजते हैं........

मन में अकुलाता हुआ घाव, 
रह रह कर पीर देता है -
उभरता है शांत होता है , 

न जाने कितने टुकड़े ज़िंदगी के -
यूँ ही बिखरते गए 
दरकते गए............

मन छलनी हो चुका है,
आँखों में छाया अन्धेरा भी-
धुंधला चुका है .....

और-

चीखते सन्नाटों को-
ये सब सहेजने के बाद भी- 
हाथ कुछ भी नहीं लगा है .........


मन तिक्त है ,
हर एक कोना रिक्त है,
मन का हर एक कोना रिक्त है ........!
                                                                   


                                                            _____________गंगेश राव