रिक्तता व्याप्त है ......
सन्नाटे -
दूर पहाड़ों के पीछे-
अंधेरी रात में -
गर्मी-उमस
और बेचैनी सहेजते हैं........
मन में अकुलाता हुआ घाव,
रह रह कर पीर देता है -
उभरता है शांत होता है ,
न जाने कितने टुकड़े ज़िंदगी के -
यूँ ही बिखरते गए
दरकते गए............
मन छलनी हो चुका है,
आँखों में छाया अन्धेरा भी-
धुंधला चुका है .....
और-
चीखते सन्नाटों को-
ये सब सहेजने के बाद भी-
हाथ कुछ भी नहीं लगा है .........
मन तिक्त है ,
हर एक कोना रिक्त है,
मन का हर एक कोना रिक्त है ........!
_____________गंगेश राव
मन तो पानी के समान होता है, जो रंग मिलाइए वही रंग ले लेता है।
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति!